Friday 28 August 2020

King Manik Chandra's generosity

 राजा माणिक चंद्र की उदारता

बंगाल में गुसकरा एक छोटा सा स्टेशन है एक दिन रेलगाड़ी आकर स्टेशन पर खड़ी हुई उतरने वाले झटपट उतरने लगे और चढ़ने वाले दौड़-दौड़ कर गाड़ी में चढ़ने लगे एक बुढ़िया भी गाड़ी से उतरी उसने अपनी गठरी खिसका कर डिब्बे के दरवाजे पर तो कर ली थी; किन्तु बहुत चेष्टा करके भी उतार नहीं पाई थी कई लोग गठरी को लांघते हुए डिब्बे में चढ़े और डिब्बे से उतरे बुढ़िया ने कई लोगों से बड़ी दीनता से प्रार्थना की कि उसकी गठरी उसके सिर पर उठा कर रख दे ; किंतु किसी ने उसकी बात पर ध्यान नहीं दिया लोग ऐसे चले जाते थे, मानो बहरे हो गाड़ी छूटने का समय हो गयाबेचारी बुढ़िया इधर-उधर बड़ी व्याकुलता से देखने लगी उसकी आंखों से टप-टप आंसू गिरने लगे

  एकाएक प्रथम श्रेणी के डिब्बे में बैठे एक सज्जन की दृष्टि बुढ़िया पर पड़ी गाड़ी छूटने की घंटी बज चुकी थी; किन्तु  उन्होंने इसकी परवाह नहीं कि अपने डिब्बे से वह शीघ्रता से उतरे और बुढ़िया की गठरी उठाकर उन्होंने उसके सिर पर रख दी वहां से बड़ी शीघ्रता से अपने डिब्बे में जाकर जैसे ही वह बैठे, गाड़ी चल पड़ी बढ़िया सिर पर गठरी गठरी लिए उन्हें आशीर्वाद दे रही थी- 'बेटा ! भगवान तेरा भला करे।'

  आप जानते हो की बुढ़िया की गठरी उठा देने वाले सज्जन कौन थे? वे थे कासिम बाजार के राजा  माणिक चंद्र नन्दी , जो उस गाड़ी से कोलकाता जा रहे थे सचमुच वे राजा थे, क्योंकि सच्चा राजा वह नहीं है जो धनी है या बड़ी सेना रखता है सच्चा राजा वह है, जिसका हृदय उदार है, जो दीन दु:खियों और दुर्बलो की सहायता कर सकता है? ऐसे सच्चे राजा बनने का तुम में से सबको अधिकार है तुम्हें इसके लिए प्रयत्न करना चाहिए

Monday 24 August 2020

अपना काम आप करने में लाज कैसी?

 अपना काम आप करने में लाज कैसी?

  एक बार एक ट्रेन बंगाल में एक देहाती स्टेशन पर रुकी गाड़ी रुकते ही एक सजे-धजे युवक ने 'कुली ! कुली ! पुकारना प्रारंभ किया युवक ने बढ़िया पतलून पहन रखा था, पतलून के रंग का ही उसका कोट था, सिर पर हैट था, गले में टाई बंधी थी और उसका बूट चम-चम चमक रहा था

  देहात के स्टेशन पर कुली तो होते नहीं बेचारा युवक बार-बार पुकारता था और इधर-उधर हैरान होकर देखता था उसी समय वहां सादे स्वच्छ कपड़े पहने एक सज्जन आए उन्होंने युवक का सामान उतार लिया युवक ने उनको कुली समझावह डाटँते हुए बोला- 'तुम लोग बड़े सुस्त हो मैं कब से पुकार रहा हूं

  उन सज्जन ने कोई उत्तर नहीं दिया युवक के पास हाथ में ले चलने का एक छोटा बॉक्स (हैंडबैग) था और एक छोटा- सा बंडल था उसे लेकर युवक के पीछे-पीछे वे उसके घर तक गए घर पहुंचकर युवक ने उन्हें देने के लिए पैसे निकालेलेकिन पैसे लेने के बदले वे सज्जन पीछे लौटते हुए बोले- 'धन्यवाद !'

  युवक को बड़ा आश्चर्य हुआ यह कैसा कुली है कि बोझ ढोकर भी पैसे नहीं लेता और उल्टा धन्यवाद देता है उसी समय वहां उस युवक का बड़ा भाई आ गया उसने जो उन सज्जन की ओर देखा तो ठक-से रह गया उसके मुख से केवल इतना निकला- 'आप !'

  जब उस युवक को पता लगा कि जिसे उसने कुली समझ कर डाटा था और जो उसका सामान उठा लाए थेवह दूसरे कोई नहीं, वे तो बंगाल के प्रसिद्ध महापुरुष पंडित ईश्वर चंद्र विद्यासागर जी हैं, तो वह उनके चरणों पर गिर पड़ा और क्षमा मांगने लगा

ईश्वर चंद्र जी ने उसे उठाया और कहा- 'इसमें क्षमा मांगने की कोई बात नहीं है हम सब भारतवासी हैं हमारा देश अभी गरीब है हमें अपने हाथ से अपना काम करने में लज्जा क्यों करनी चाहिए अपने हाथ से अपना काम कर लेना तो संपन्न देशों में भी गौरव की बात मानी जाती है

देश-भक्त

देश-भक्त 

  राजपूताना में बूंदी- राज्य पहले चित्तौड़ के अधीन था; किंतु पीछे वह स्वाधीन हो गया जब चित्तौड़ के राणा दिल्ली के बादशाह के आक्रमणों से कुछ निश्चित हुए, तब उन्होंने बूंदी पर आक्रमण करके उसे फिर से चित्तौड़ के अधीन बनाने का निश्चय किया एक सेना सजा कर वे चल पड़े और बूंदी के पास निमोरिया में पड़ाव डालकर रुके बूंदी के राजा हाड़ा को इसका समाचार मिला उन्होंने अपने चुने हुए पाँच सौ योद्धाओं को साथ लिया और रात के समय राणा की सेना पर छापा मारा

  चित्तौड़ के सैनिक बेखबर थे अचानक आक्रमण होने से उनके सहस्त्रों वीर मारे गए राणा को पराजित होकर चित्तौड़ लौटना पड़ा इस पराजय से राणा क्रोध में भर गए उन्होंने प्रतिज्ञा कि-' जब तक बूंदी के किले को गिरा नहीं दूंगा, अन्न- जल नहीं लूंगा।'

  चित्तौड़ से बूंदी 32 कोस है सेना एकत्र करने, बूंदी तक जाने में समय तो लगना ही था यह भी पता नहीं था कि युद्ध कितने दिन चलेगा राणा की प्रतिज्ञा सुनकर चित्तौड़ के सामंत और मंत्री बहुत दुखी हुए उन्होंने राणा को समझाया-'आपकी प्रतिज्ञा बहुत कड़ी है बूंदी जितना तो है ही; किंतु आप तब तक अन्न-जल ना लेने की प्रतिज्ञा छोड़ दें।'

 राणा ने कहा- 'प्रतिज्ञा तो प्रतिज्ञा है मैं अपनी प्रतिज्ञा झूठी नहीं करूंगा।'

  अन्त में मंत्रियों ने एक उपाय निकालाउन्होंने चित्तौड़ में बूंदी का एक नकली किला बनाने का विचार किया और राणा से कहा- 'आप बूंदी के नकली किले को गिराकर प्रतिज्ञा पूरी कर लीजिए और अन्य-जल ग्रहण कीजिए दो-चार दिनों में सेना एकत्र करके बूंदी पर सुविधा अनुसार आक्रमण किया जाएगा।'

  राणा ने मंत्रियों की बात मान ली बूंदी का नकली किला बनाया जाने लगा बूंदी में हाड़ा जाति के राजपूतों का राज्य था बूंदी के हाड़ा जाति के कुछ राजपूत चित्तौड़ की सेना में भी थे उनकी सैनिक टुकड़ी के नायक का नाम कुम्भा वैरसी था कुम्भा उस दिन वन से आखेट करके लौट रहे थे तो उन्होंने बूंदी का नकली किला बनते देखा पूछने पर उन्हें राणा की प्रतिज्ञा और मंत्रियों के सलाह की सब बातों का पता लगा कुम्भा बड़ी शीघ्रता से अपने डेरे पर आए उन्होंने अपनी टुकड़ी के सब हाड़ा राजपूत सैनिकों को इकट्ठा किया सब बातें बताकर वह बोले- 'जहां एक भी सच्चा देश-भक्त होता है, वहां वह अपने जीते जी अपने देश के झंडे या अपने देश के किसी आदर्श चिन्ह का अपमान नहीं होने देता यह बूंदी का नकली किला झंडे के समान बूंदी का चिन्ह बनाया जा रहा है और इसी भाव से उसे तोड़ने की बात सोची गई है यह हमारी जन्मभूमि का अपमान है अपने जीते जी हम यह अपमान नहीं होने देंगे।'

  ठीक समय पर राणा जी थोड़ी सेना लेकर नकली किला तोड़ने गए तो उन्होंने देखा कि कुम्भा वैरसी अपने सैनिकों के साथ उस किले की रक्षा के लिए हथियारों से सजा खड़ा है कुम्भा ने राणा से कहा- हम लोग आपके सेवक हैं हमने आपका नमक खाया है आप बूंदी पर आक्रमण करें तो हम आप का विरोध नहीं करेंगे दूसरे किसी आक्रमण में हम आपकी रक्षा के लिए, आपकी आज्ञा का पालन करने के लिए बड़ी प्रसन्नता से प्राण दे सकते हैं, किन्तु अपनी जन्मभूमि का हम इस प्रकार अपमान नहीं देख सकते हमारे जीते-जी आप इस नकली किले को तोड़ नहीं सकते

  राणा को क्रोध आया बड़ा भरे युद्ध छिड़ गया जिस नक़ली किले को तोड़ना राणा और उनके मंत्रियों ने बहुत सरल समझा था, उसके लिए उन्हें बड़ा भयानक युद्ध करना पड़ा कुंभा और उनके साथियों की जब लोथें गिर गई, तभी राणा उस नकली किले को तोड़ सके

  किले को तोड़कर राणा ने अपनी प्रतिज्ञा पूरी कर ली, किन्तु कुम्भा- जैसे वीर के मरने का उन्हें बड़ा दु:ख हुआ उन्होंने कुम्भा की वीरता का सम्मान करने के लिए बूंदी पर आक्रमण करने का विचार छोड़ दिया और वहां के राजा को बुलाकर उनसे मित्रता कर ली

 कुम्भा- जैसे देश-भक्त एवं वीर ही देश को स्वाधीन एवं गौरवशाली बनाते हैं 

Sunday 23 August 2020

संयमराय का अपूर्व त्याग

 संयमराय का अपूर्व त्याग

  दिल्ली के प्रतापी राजा पृथ्वीराज और महोबे के राजा पिरमाल में बहुत दिनों से शत्रुता थी परिमाल ने अवसर पाकर पृथ्वीराज की एक सैनिक टुकड़ी पर आक्रमण किया और उसके कुछ सैनिकों को उन्होंने बंदी बना लिया यह समाचार जब दिल्ली पहुंचा, तब राजा पृथ्वीराज क्रोध में भर गए उन्होंने सेना सजा सजायी और महोबे पर आक्रमण कर दिया

  मोहेबे के राजा परिमाल भी बड़े वीर थे उनकी सेना में आल्हा और उदल- जैसे वीर सामंन्त थे आल्हा- उदल की वीरता का लो अब तक वर्णन करते हैं परिमाल ने आल्हा- उदल और अपने दूसरे सब सैनिकों के साथ पृथ्वीराज का सामना किया बड़ा भयंकर युद्ध हुआ लेकिन दिल्ली की विशाल सेना के आगे महोबे के वीर टिक नहीं सके राजा पृथ्वीराज विजय हुए महोबे कि सेना युद्ध में मारी गई परिमाल भी मारे गये लेकिन दिल्ली की सेना भी मारी गई और पृथ्वीराज भी घायल होकर युद्ध भूमि में गिर गए

  सच्ची बात यह है कि उस युद्ध में कौन विजय हुआ, यह कहना ही कठिन है दोनों ओर के प्रायः सभी योद्धा पृथ्वी पर पड़े थे अन्तर इतना ही था कि महोबे के राजा और उनके वीरों ने प्राण छोड़ दिए थे और पृथ्वीराज तथा उनके कुछ सरदार घायल होकर गिर थे वे जीवित तो थे; किंतु इतने घायल हो गए थे कि हिल भी नहीं सकते थे

जब दोनों ओर के वीर युद्ध में मरकर या घायल होकर गिर गए और युद्ध की हलचल दूर हो गई, वहां झुंड- के- झुंड गीध  आकाश से उतर पड़े वे मरे और घायल लोगों को नोच- नोच कर खाने लगे उनकी आंखें और आंते निकालने लगे बेचारे घायल लोग चीखने और चिल्लाने को छोड़कर और क्या कर सकते थे वे उन गधों को भगा सके, इतनी शक्ति भी उनमें नहीं थी

  राजा पृथ्वीराज जी घायल होकर दूसरे घायलों के बीच में पडे थे वे मूर्छित हो गए थे गिद्धों का एक झुंड उनके पास भी आया और आस-पास के लोगों को नोच- नोच कर खाने लगा पृथ्वीराज के वीर सामंत संयम राय भी युद्ध में पृथ्वीराज के साथ आए थे और युद्ध के समय पृथ्वीराज के साथ ही घायल होकर उनके पास ही गिरे थे

संयम राय की मूर्छा दूर हो गई थी, किंतु वे भी इतने घायल थे कि उठ नहीं सकते थे युद्ध में अपनी इच्छा से ही वे राजा पृथ्वीराज के अंगरक्षक बने थे उन्होंने पड़े-पड़े देखा कि गिद्धों का झुंड राजा पृथ्वीराज की ओर बढ़ता जा रहा है वे सोचने लगे- 'राजा पृथ्वीराज मेरे स्वामी हैं उन्होंने सदा मेरा सम्मान किया है मुझ पर वे सदा कृपा करते थे उनकी रक्षा के लिए प्राण दे देना तो मेरा कर्तव्य ही था और युद्ध में तो मैं उनका अंगरक्षक बना था मेरे देखते-देखते गीध उनके शरीर को नोच कर खा ले, तो मेरे जीवन को धिक्कार है

संयम राय ने बहुत प्रयत्न किया, किंतु वह उठ नहीं सके गीध पृथ्वीराज के पास पहुंच गए थे, अन्त में वीर संयम राय को एक उपाय सूझा गया पास पड़ी एक तलवार किसी प्रकार खिसका कर उन्होंने उठा ली और उससे अपने शरीर का मांस काट-काटकर गिद्धों की और फेंकने लगे गिद्धों को मांस की कटी बोटियां मिलने लगी तो वे उसको झपट्टा मारकर लेने लगेमनुष्यों के देह नोचना उन्होंने बंद कर दिया

  राजा पृथ्वीराज की मूर्छा टूटी उन्होंने अपने पास गिद्धों का झुंड देखा उन्होंने यह भी देखा कि संयम राय उन गिद्धों को अपना मांस काट-काट कर खिला रहे हैं इतने में पृथ्वीराज के कुछ सैनिक वहां आ गए वे राजा और उनके दूसरे घायल सरदारों को उठाकर ले जाने लगे; किंतु स्वयं राय अपने शरीर का इतना मांस गिद्धों को काट-काट कर खिला चुके थे कि उनको बचाया भी नहीं जा सका अपने कर्तव्य के पालन में अपने देह का मांस अपने हाथों काटकर गिद्धों को देने वाला वह वीर युद्धभूमि में सदा के लिए सो गया था

Wednesday 19 August 2020

भामाशाह का त्याग

 भामाशाह का त्याग
 
चित्तौड़ पर अकबर की सेना ने अधिकार कर लिया था महाराणा प्रताप अरावली पर्वत के वनों में अपने परिवार तथा राजपूत सैनिकों के साथ जहां-तहां भटकते-फिरते थे महाराणा तथा उनके छोटे बच्चों को कभी-कभी दो-दो, तीन-तीन दिनों तक घास के बीजों की बनी रोटी तक नहीं मिलती थी चित्तौड़ के महाराणा और सोने के पलंग पर सोने वाले उनके बच्चे भूखे-प्यासे पर्वत की गुफाओं में घास-पत्ते खाते और पत्थर की चट्टान पर सोते थे लेकिन महाराणा प्रताप को इन सब कष्टों की चिंता नहीं थी उन्हें एक ही धुन था कि शत्रु से देश का-चित्तौड़ की पवित्र भूमि का उद्धार कैसे किया जाए
                                                                                                  किसी के पास काम करने का साधन ना हो तो उसका अकेला उत्साह क्या काम आवे महाराणा प्रताप और दूसरे सैनिक भी कुछ दिन भूखे-प्यासे रह सकते थे; किन्तु भूखे रहकर युद्ध कैसे चलाया जा सकता है घोड़ों के लिए, हथियारों के लिए, सेना को भोजन देने के लिए तो धन चाहिए महाराणा के पास फूटी कौड़ी नहीं थी उनके राजपूत और भील सैनिक अपने देश के लिए मर-मिटने को तैयार थे उन देशभक्तों वीरों को वेतन नहीं लेना था; किन्तु बिना धन के घोड़े कहां से आयेगे,  हथियार कैसे बनायेगे, मनुष्य और घोड़ो को भोजन कैसे दिया जाय इतना भी प्रबंध ना हो तो दिल्ली के बादशाह की सेना से युद्ध कैसे चले महाराणा प्रताप को बड़ी निराशा हो रही थी अंत में एक दिन महाराणा ने अपने सरदारों से विदा ली, भीलों को समझाकर लौटा दिया प्राणों से प्यारी जन्म-भूमि को छोड़कर महाराणा राजस्थान से कहीं बाहर जाने को तैयार हुए

 
जब महाराणा अपने सरदारों को रोता छोड़कर महारानी और बच्चों के साथ वन के मार्ग से जा रहे थे, महाराणा के मंत्री भामाशाह घोड़ा दौड़ते आए और घोड़े से कूदकर महाराणा के पैरों पर गिरकर फूट-फूट कर रोने लगे-' आप हम लोगो को अनाथ करके कहां जा रहे हैं?

  महाराणा प्रताप ने भामाशाह को उठाकर हृदय से लगाया और आंसू बहाते हुए कहा- 'आज भाग्य हमारे साथ नहीं है अब यहां रहने से क्या लाभ? मैं इसलिए जन्मभूमि छोड़कर जा रहा हूं कि कहीं कुछ धन मिल जाए तो उससे सेना एकत्र करके फिर चित्तौड़ का उद्धार करने लौटू आप लोग तब तक धैर्य धारण करें।'
  भामाशाह ने हाथ जोड़कर कहा-' महाराणा आप मेरी एक बात ना मान लें।'
  महाराणा प्रताप बड़े स्नेह से बोले-' मंत्री ! मैंने आपकी बात कभी टाली है क्या?'
 भामाशाह के पीछे उनके बहुत-से सेवक घोड़ों पर अशर्फियो के थैले लादे ले आय थे भामाशाह ने महाराणा के आगे उन अशर्फियों का बड़ा भारी ढेर लगा दिया और फिर हाथ जोड़कर बड़ी विनम्रता से कहा- ' महाराणा ! यह सब धन आपका ही है मैंने और मेरे बाप-दादों ने चित्तौड़ के राजदरबार की कृपा से ही इसे इकट्ठा किया है आप कृपा करके इसे स्वीकार कर लीजिए और इससे देश का उद्धार कीजिए
  महाराणा प्रताप ने भामाशाह को हृदय से लगा लिया उनकी आंखों से आंसू की बूंदे टप टप गिरने लगी वह बोले लोग- प्रताप को देश का उद्धारक कहते हैं, किंतु इस पवित्र भूमि का उद्धार तो तुम्हारे- जैसे उदार पुरुषों से होगा तुम धन्य हो भामाशाह?'
 उस धन से महाराणा प्रताप ने सेना इकट्ठा की और मुगल सेना पर आक्रमण किया मुगलों के अधिकार की बहुत- सी भूमि महाराणा ने जीत ली और उदयपुर में अपनी राजधानी बना ली
 महाराणा प्रताप की वीरता जैसे राजपूताना के इतिहास में विख्यात है, वैसे ही भामाशाह का त्याग भी विख्यात विख्यात है ऐसे त्यागी पुरुष ही देश के गौरव होते हैं

Saturday 15 August 2020

Hindi Story-चिकना घड़ा

 चिकना घड़ा

एक सेठ थाउसका घी-तेल का व्यापार था शुद्ध माल बेचता था, इसलिए उसकी दुकान पर खूब बिक्री होती थी अच्छी बिक्री के कारण उसके पास कुछ धन जमा हो गया था 

उसके घर में केवल दो ही प्राणी थे- वह और उसकी पत्नी उसके कोई संतान नहीं थी जब बुढ़ापा समीप आने लगा तो वह व्यापार के साथ-साथ तीर्थ भ्रमण, पूजा-पाठ व सामाजिक कार्यों में भी रुचि लेने लगा

 एक बार उस सेठ के नगर में कवि- सम्मेलन का आयोजन हुआ तो सम्मेलन में भाग लेने के लिए दूर-दूर से कई प्रसिद्ध कवियों का आगमन हुआ

सेठ ने अपने जीवन में कोई कवि- सम्मेलन ना देखा था अतः रात को वह अपने दुकान को बंद करके वह भी कवि सम्मेलन देखने चला गया

 सबसे प्रथम एक कवि ने सरस्वती वंदना का मनोहर चंद सुनाया और फिर भक्ति- रस की कुछ अन्य कविताएं सुनआई सभी वाह-वाह कर उठे सेठ के मन में भगवान की भक्ति की तरंगें उठने लगी

 

दूसरे नंबर पर एक कवि ने देशभक्त के जोशीले गीत सुनाए उनकी सभी रचनाओं को भी सब श्रोताओं ने खूब सराहआ

फिर,तीसरे नंबर पर जब एक हास्य- कवि की बारी आई तो, बस जैसे सम्मेलन में हंसी का तूफान उठ खड़ा हुआ कविवर हाथ फेंक कर और तरह-तरह की मुद्राएं बदल-बदल कर कविता- पाठ कर रहे थे और सुनने वाले हंसी के मारे लोटपोट हुए जा रहे थे हंसी के मारे सेठ के पेट में भी बल पड़ गया लोग वाह-वाह कर उठे

 जब हंसी का दौर कुछ थमा तो बारी आई- वीर- रस के कवि महोदय की कवि का उपनाम "बंम्ब " था

 उपनाम के अनुरूप ही, मानव" बम" फट पड़ा था कविता क्या थी, सिंह- गर्जना थी! कुछ क्षणों के पूर्व वाला हंसी का सारा हल्का-फुल्का वातावरण कविता की दो पंक्तियां सुनते ही ओजस्वी हो उठा अन्य बलवान श्रोताओं की बात तो अलग थी, मरियल- से सेट की भी बोटी-बोटी फड़कने लगी और मुख पर तेज झलकने लगा

 सेठ ने अपने समीप बैठे एक व्यक्ति से पूछा-' भैया यह कवि लोग कहां पाए जाते हैं?'

 

सेठ की बात सुनकर वह व्यक्ति हंसकर बोला-' सेठ जी' कवि संसार के सभी देशों, नगरो, गांव, मोहल्ला, जाति, धर्म- संप्रदाय में पाया जाने वाला जंतु है शब्दों का जोड़- तोड़ भिड़ा कर कुछ अंट-सन्ट सेट गढ़ लो- बन गए कवि! चाहो तो तुम भी कवि बन सकते हो?'

 सेठ मन- ही- मन अपने जीवन से कवियों के जीवन की तुलना करने लगा- वह भी तो अपने दुकान में दिनभर शुद्ध घी और तेल बेचता है, कभी किसी तेल या घी खरीदने वाले खरीददार ने उसके काम की सराहना नहीं की उसे समाज की ओर से भी कभी वाहवाही नहीं मिली सचमुच उससे तो कविओ का जीवन ही अच्छा है बस, एक-दो चंद बनाकर सुना दो और खूब यश व धन लूटो

 फिर अपनी ढलती जवानी का ध्यान आया तो सोचने लगा- अब तो थोड़ा सा जीवन और बचा है, वह भी घी- तेल बेच कर ही कट जाएगा कवियों का श्रेष्ठ जीवन उन्हें ही मुबारक!

 किंतु यह विचार भी स्थाई ना रह सका उसे किसी नीतिकार का वचन याद आया- किसी शुभ काम की प्रेरणा मिलने पर प्रमाद न करते हुए उस काम को कर ही डालना चाहिए

 इसी उहापोह में वह उठकर चल दिया पूरे मार्ग में वह यही बात सोचता रहा कि वह क्रांतिकारी विचार के अनुसार अपने जीवन को बदलने का प्रयत्न करें या नहीं?

 अपने घर पहुंचते-पहुंचते सेठ के क्रांतिकारी विचार की विजय हो गई उसने अपने मन में दृढ़ संकल्प कर लिया कि वह अब कभी बने बिना चैन से ना बैठेगा

रात को उसे सपने में भी कवि- सम्मेलन के दृश्य ही दिखाई देते रहे एक सपना तो उसने यह भी देखा है कि वह कविता- पाठ कर रहा है लोग 'वाह-वाह!' और 'धन्य- धन्य' कह रहे हैं और, कविता- पाठ करके जब वह अपने घर लौटा है तो गुलाब के फूलों का बड़ा सा हार उसके गले में झूल रहा है पारिश्रमिक या पुरस्कार के रूप में प्राप्त पांच-सौ-एक रुपये उसकी जेब में पड़े हैं, सो अलग

 उस समय प्रसन्नता में डूबा वह गले के हार को उतारने लगता है तो एकाएक उसके नींद टूट जाती है- जो गमछा गले में अटक गया था, उसी हार को, वह अपने गले से हटाता है

 दूसरा दिन

 दूसरे दिन वह सेठ जल्दी-जल्दी दैनिक कार्यों से निपट कर कवि सम्मेलन के आयोजक के पास जा पहुंचा और बोला-' मुझे किसी अच्छे से कवि का पता बता दीजिए

 'आप भी कोई कवि- सम्मेलन करना चाहते हैं क्या? आयोजक ने पूछा

' नहीं, मैं तो स्वयं कवि बनना चाहता हूं।' सेठ ने कहा

  सेठ का यह उत्तर सुनकर वह व्यक्ति मन- ही- मन हंसा किंतु उसने सेठ को छकाने के लिए एक धूर्त और अहंकारी तथाकथित कवि का पता बता दिया

 सेठ पर तो कवि बनने का भूत पूरी तरह सवार था ही, वह तुरंत ही कविराज के दर्शनों को चल पड़ा

 सेठ ने कभी के पास पहुंच कर उसके चरण स्पर्श किए और उसके बाद अपने आने का उद्देश्य बताया

सेठ का उद्देश्य जानकर कवि महोदय मुस्कुरा कर बोले-' विचार तो आपका उत्तम है किंतु..........'

 'किंतु क्या?' सेठ ने व्यग्रता के साथ पूछा

' कवि बन पाना इतना आसान नहीं है, जितना आप समझ रहे हो इस विद्दा को सीखने के लिए बड़े-बड़े पापड़ बेलने पड़ते हैं तब कहीं जाकर……'

कवी अपनी बात पूरी भी नहीं कर पाया था कि सेठ बोल पड़ा-' आप चिंता ना करें गुरुवर! पापड़, पूरी, यहां तक कि आप की रोटी तक बेलने के लिए तैयार हूं आप किसी तरह मुझे कवि बना दीजिए मेरे जीवन की अंतिम साधना पूरी हो जाएगी

'हूँ........,ऐसा ज्ञात होता है कि आप दृढ़ निश्चय करके घर से चले हैं? कवि ने पूछा

 'आपका विचार सोलह- आने सच है'

'हूँ.....'लंबा हुंकार मारने के बाद कवि महोदय ने अपने मन में सोचा- हास्य में चल सकता है फिर सेठ से पूछा-' आपकी रूचि किस रस में है?'

 सेठ ने समझा, शायद कवि उसके सत्कार के लिए किसी रस की बात पूछ रहे हैं अतः वह सकुचाकर बोला-' ह... ह.... ह.... रस की क्या जरूरत है वैसे संतरा, मोसम्मी या जो भी आप व्यवस्था कर सके, वही रस ठीक रहेगा।'

  सेठ की यह बात सुनकर कवि ने उसे मन- ही- मन उसे भद्दी- सी गाली दी, किंतु प्रकट में हिना- हिनाकर बोला- ह....ह... ह..... मेरा मतलब साहित्य रस से है आप किस रस में साहित्य सर्जन करना चाहते हैं?'

 सेठ को साहित्यिक- रसों की जानकारी भला कहां थी वह मुंह- बाये कवि को देखता रहा, तो कवि समझ गया कि सेठ निरा काठ का उल्लू है वह बोला-' काव्य के नौ रस होते हैं हर कवि को अपनी आकृति और स्वभाव के अनुरूप उनमें से एक रस चुनना होता है उसी रस की साधना करनी होती है तथा उसी रस के कवि के रूप में ही वह जाना जाता है।'

  'मैं आपके सामने खड़ा हूं आप जो भी रस मेरे लिए उचित समझे, बता दे हां, आपसे यह बात मैं डंके की चोट पर कहता हूं कि रस में विष कदापि नहीं मिलाऊंगा मेरी शुद्ध देसी घी की दुकान है, परंतु मैंने कभी मिलावट नहीं की अब आप ही बताइए- फिर साहित्य के रस में ही मिलावट क्यों करूंगा?' सेठ बोला-

  'आपके उत्तम विचार जानकर हम प्रसन्न हैं- भद्र! आपकी शुद्ध घी की दुकान है, तो अगली बार जब पधारे तो किलो दो- किलो…..'

  'दो किलो क्यों, गुरुवर! पूरा कनस्तर लाऊंगा गुरु- सेवा से बढ़कर और कौन- सा पवित्र कार्य हो सकता है? सेठ ने हाथ जोड़कर कवि की बात काटकर बीच में ही कहा

 कवि मन- ही- मन मुस्कुराया फिर बोला-' ठीक है यह आपकी कोमल काया को देखते हुए मैं आपकी काव्य- साधना के लिए शृंगार-रस उचित समझता हूं

 'शृंगार और पुरुष के लिए!' सेठ चौका बोला- गुरूजी श्रृंगार- रस तो महिला कवि

 'आप ठीक समझें बुद्धि- कुशाग्र है, विद्दा को जल्दी ग्रहण करोगे।' कविवर  नहीं प्रसन्नता व्यक्त की

' आपकी कृपा से गुरुवर!' श्रद्धा से मस्तक नवाया ने

  'हां तो, अब मैं आपसे कुछ प्रश्न पूछूंगा और कवि बनने के लिए जो स्थूल- साधना आवश्यक है, वह बताऊंगा' कवि बोला

 'गुरुवर! साधना की बाद तो समझ में आती है, किंतु यह स्थूल क्या बला है?

 'स्थूल- साधना से अभिप्राय कवि बनने की ऊपरी तैयारी से है, जब आप ऊपरी तैयारी कर चुकोगे तो सूक्ष्म- साधना के अधिकारी अपने आप बन जाओगे।' कवि ने बताया

 सेठ के पल्ले कवि की बात बिल्कुल ना पड़ी किंतु उसकी नाराजगी के डर से उसने पूछा भी कुछ नहीं हां, हाथ जोड़ते हुए यो बोला-' आप जो भी प्रश्न पूछना चाहे- पूछ ले, मैं तैयार हूं

 आसन पर जमकर बैठते हुए बोला-' आपका प्रिय व्यसन कौन सा है?'

 'मैं व्यसनों से कोसों दूर हूं।' सेठ ने उत्तर दिया

 'मेरा मतलब है- धूम्रपान में सिगरेट, बीड़ी या चिल्लम?'

 'कोई भी नहीं सेठ बोला

 'तो सिगरेट से प्रारंभ करके सिगार की तरफ बढ़ना होगा और हां, पेय में मदिरा प्रिय है या भांग? यदि मदिरा-पान कर लेते हो तो कौन- सा ब्राण्ड? कवि ने पूछा

 'आप कैसी बातें कर रहे हैं, प्रभु! मैं तो इनमे से किसी भी वस्तु को छूना भी पाप समझता हूं।' सेठ ने कहा

 'ह.....ह......ह......तो आपको कवि नहीं, भक्त बनने का प्रयास करना चाहिए अरे पगले! कवि और वह भी श्रृंगार- रस का! यदि आपके मस्तिष्क में ही मादकता ना रहेगी तो फिर कविता में क्या खाक मादकता का संचार कर पाओगे खैर! हताश होने की जरूरत नहीं, आप केवल उक्त वस्तुओं का प्रबंध करके ले आवे अभ्यास कराना मेरा काम है हां, एक प्रश्न और।'

 'पूछिये गुरुवर!'

 'आपका इष्ट-देव कौन है?'

 'भगवान श्री कृष्ण।'

 हां, तुम्हारा ईष्ट देव श्रेष्ठ है, चलेगा किंतु इसके साथ ही आपको अपनी पत्नी को भी अपने इष्ट देवी समझना होगाआप अब उसे सुमुखे, सुनयने, प्रेरणा आदि संबोधनों से संबोधित करेंगे- 'लल्लू की महतारी' या 'पप्पू की मम्मी' कह कर नहीं।'

 'अजी महाराज! घर में कोई लल्लू या पप्पू ही होता तो कवि बनने की सनक ही मुझ पर क्यों सवार होती?'

 'तो आप नि:संतान हैं?'

 'हां भगवान! दीर्घ श्वांस खींचकर सेठ बोला

 'यह शुभ लक्षण है भगवान ने आपको कवि बनने के लिए ही तो इस धरा-धाम पर भेजा है।'

 'और कोई हिदायत? पूछा सेठ ने

 'हिदायत नहीं, सफलता के सूत्र कहो- मेरे इन उपदेशों को भविष्य में यही उपदेश तुम्हें' महान कवि' की उपाधि से विभूषित करायँगे

 'आपकी कृपा के लिए आभारी हूं गुरुवर!'

 'अरे हां! कुछ याद करता हुआ कवि बोला-' अभी दो बातें बताना तो मैं भूल ही गया।'

 'तो अब बता दीजिए, गुरुजी।'

 'हां आपको अपनी वेशभूषा में भी पूरी तरह परिवर्तन करना होगा।' सेठ चौका

 'धीरे-धीरे सब समझ समझ जाओगे वत्स यह गुण विद्दा है, आसानी से समझ में कहां आ जाती है मन- ही- मन यो बड़बडाकर कवि बोला-' इस लालशाही पोशाक को छोड़कर कुर्ता और पैजामा अपनाना होगा केशो को बढ़ाना होगा और कंधे पर पद यात्रियों वाला थैला भी आवश्यक है।'

  कुछ सोचता हुआ सेठ बोला-' गुरूजी, और सब परिवर्तन तो मैं कर लूंगा, किंतु....'

  'गुरु- वचनों में किन्तु-परन्तु की गुंजाइश कहां, उनको तो आंखें मूंदकर पालन करना आवश्यक है।' कविवर ने कहा

  'यह बाल बढ़ाने का झंझट मुझसे ना पाला जाएगा, स्नान करने पर यह घंटों सूखने का नाम ही नहीं लेंगे काव्य- रचना  की बजाय मै बालों का ही गुलाम बन कर रह जाऊंगा।' सेठ बोल

 'अरे- मेरे बहुत प्यारे शिष्य! आप श्रृंगार रस के कवि बनने जा रहे हो, घसियारे नहीं फिर आप से नहाने के लिए किस उल्लू ने कहा है नहाओ भले ही साल में एक बार, किन्तु बालों को तेल-कंघी का पोषण मिलते रहना आवश्यक है।'

 'तेल तो एकदम शुद्ध, पीली सरसों का मेरे यहां मौजूद है ही को उसकी कोई चिंता नहीं- चिंता है तो केवल बालों के सवारने की।'

 'आप फिर चूक गए सेठ! भई एकदम शुद्ध की बजाय भले ही महा-अशुद्ध हो, किन्तु तेल सुगन्धित होना चाहिए चमेली, मोगरा या आंवला कोई भी सुगंध ठीक रहेगी।'

 'मैं धन्य हुआ गुरुजी!' यह कहकर सेठ ने विदाई ली

 तीसरा दिन

  सेठ जी ने अपने घर पहुंच कर जब पत्नी को अपनी खुराफात सुनाई तो उसने अपना मस्तक पीटते हुए सेठजी को समझाया-' कवि सम्मेलनों में कवियों का काव्य- पाठ सुनने गए थे या कवि बनने? यदि कल को किसी सर्कस में खेल देखने चले गए तो तुम झूलों पर कलाबाजी भी खाने लगोगे? नहा-धोकर भगवान का नाम लो और अपने दुकान पर पहुंचो, बन लिए कवि........ हूँ 

 सेठजी के मन में तो यह आया कि अपनी पत्नी की बात के उत्तर में कह दे कि स्त्री की बुद्धि हमेशा उसकी छोटी में बंधी रहती है, किंतु प्रकट में बोले-' प्रिये! सुमुखे ! सुनयने !!! तुम्हारे बल पर ही तो मैं काव्य- जगत में प्रवेश करने वाला हूं.....  और तुम हो कि...... '

 सेठजी शायद आगे भी कुछ कहते, किंतु तभी सेठानी हाथ नचाते हुए बोली-' हाय राम, और लो ! कवी तो ना जाने कब बनोगे, ये ढोंग- भरे चोंचले अभी से शुरू कर दिए।'

 'तुम कुछ भी कहो अब तो कवि बन कर ही यश और सम्मान कमाना है।'

  सेठानी चतुर् थी अपने पति के स्वभाव से वह अच्छी तरह परिचित थी- समझ गई कि ये तो चिकने घड़े हैं, जब तक इन्हें भरपूर टक्कर न लगेगी, इन्हें अक्ल न आएगी समझाना- बुझाना बेकार है बोली-' मैं तो आपकी अनुगामिनी हूं, प्राणनाथ! जिस काम में आपकी रूचि हो, वही करो

 सेठ को सपने में भी विश्वास ना था कि उसकी पत्नी इतनी आसानी से स्वीकृति दे देगी वह प्रसन्न हो उठा

 दूसरे दिन ही अपने सेवक के हाथों उसने शुद्ध घी का एक कनस्तर और कुछ नगद रुपए अपने गुरु के यहां भेज दिए और स्वयं अपने गुरु के उपदेश का पालन करने में जुट गया

 गुरुजी की अन्य आज्ञाओ का पालन करने में तो कोई विशेष कठिनाई नहीं हुई, किंतु काफी प्रयत्न करने पर भी वह मदिरा-पान ना कर सका हां, मदिरा के स्थान पर उसने दिन भर चाय सुड़कना शुरू कर दिया

  उसकी पत्नी उसके लक्षणों को देख- देख कर परेशान थी, किंतु बेचारी मूकदर्शक बनी हुई थी कहां तो पहले सेठ जी प्रातः तड़के बिस्तर छोड़ कर स्नान- ध्यान आदि दैनिक कार्यों में लग जाते थे और कहां अब 8:00 बजे तक भी बिस्तर पर में पड़े-पड़े करवट बदलते हुए उसे गुहार लगाते-' भद्रे, एक कप गर्म- गर्म चाय दे दो,ताकि तुम्हारा होनहार कवि- पति, उसे हथियार बनाकर, तन्द्रा से संग्राम कर सके।'

  'हे राम ! इनकी बुद्धि को क्या हो गया है? अनियमित और सड़ीयल जीवन जीने से आखिर कवि का क्या संबंध है?' वह मन ही मन बुदबुदाती और प्रत्यक्ष में उसे चाय बनाकर देनी ही पड़ती

 दो महीने की साधना के बाद सेठ के लिए में बदलाव आने लगा दुकान पर ग्राहक भी उससे उपहास करने लगे उससे सेठ यह तो समझ गया कि वह उन्नति की ओर बढ़ रहा है, किंतु फिर भी गुरु से पूछना आवश्यक था अतः एक दिन वह गुरु जी से मिलने चल दिया

 चौथा दिन

  गुरुजी ने जैसे ही उसे देखा- वह खुशी से उछलते हुए बोले-' वाह..... वाह..... वाह......वाह मेरे प्यारे,वाह -वाह ! आपने तो कमाल ही कर दिया। परिवर्तन ! सचमुच परिवर्तन !! आश्चर्यजनक परिवर्तन !!!'

 'आपके आशीर्वाद का ही फल है, गुरुजी सेठ ने श्रद्धा सहित गुरु के चरण स्पर्श किए

  'हां प्रिय आपके हुलिये को देखकर यह बात डंके की चोट पर कही जा सकती है कि आपका हुलिया फिफ्टी पर्सेन्ट कवि  का हुलिया.... किन्तु  व्यसनों....'

 गुरु की बात को बीच में ही काट कर सेठ  बोला-' प्रभु ! सिगरेट का अभ्यास तो धीरे-धीरे कर रहा हूं, किन्तु मदिरा का सेवन मुझसे ना हो सकेगा हां, मदिरा के स्थान पर चाय खूब पीने लगा हूं

 'बहुत अच्छा ! बहुत अच्छा !! यह शुभ लक्षण है रही बात मदिरा की, तो उसका लाभ गुरु अर्पित करने पर मिल सकता है मैं तुम्हें फलदायक ब्रांड का नाम लिख दूंगा मेरे लिए एक महीने का कोटा (लगभग 20 बोतल) एक साथ ही भेज देना।'

 'जो आज्ञा गुरुवर ! अब आप मुझे कविता बनाने का ढंग बताने की कृपा करें।'

  'आपके ऊपर हम शत- प्रतिशत यानी हण्ड्रेड परसेंट प्रसन्न है सेठजी, अवश्य कृपा करेंगे !' सेठ से यह कहकर कवि जी आंख मूंदकर कुछ सोचने लगे दस-पंद्रह मिनट बाद आंख खोली और चारों ओर देखकर, पेड़ पर बैठे एक बंदर पर नजर गड़ा करा कर बोले-' वह पेड़ पर कौन बैठा है?'

  शिष्य ने गौर से देख कर बताया-' बंदर है, गुरुजी !

  'ठीक पहचाना ह.....ह......ह......अब बंदर पर कविता बनाता हूं, सुनो !'

  'सुनाओ !'

  'हम हैं घर के अंदर !

 ' हम पर है बंदर !!

  गुरुजी ने छंद बनाया शिष्य ने सुना तो वह खुशी से झूम उठा- वाह ! गुरुवर ! आपको तो सचमुच् सरस्वती सिद्ध है।'

  'बस, इसे गुरु मंत्र मांन कर शाम को नित्य दो घंटे जपना शुरू कर दो इससे आपकी बुद्धि कुशाग्र हो जायगी

   'शाम को तो दुकान पर बैठना होता है।' शिष्य ने अपनी परेशानी प्रकट की

   'भाई ! महान कवि बनने के लिए प्रयत्नशील व्यक्ति को दुकान का झंझट शोभा नहीं देता आपको दुकान का काम छोड़ना होगा

 'यही काम करूंगा गुरुवर !' यो कह कर सेठ गुरुजी की बनाई हुई कविता को रटने लगा

  'आप इस कविता का अच्छी तरह अभ्यास कर लो, आज रात तो मैं आपने साथ आपको कवि- सम्मेलन में ले चलूंगागुरुजी ने अपने शिष्य से कहा-' हां, एक बात याद रखना कि कविता- पाठ करते समय आपकी आंखें बिल्कुल मुदि होनी चाहिए।'

 'ऐसा क्यों गुरु जी? शिष्य ने पूछा

 'प्रारंभ में आंख मूंदकर ही काव्य- पाठ करना अच्छा रहता है इससे एकाग्रता बनी रहती है।' गुरु ने समझाया

 शिष्य प्रसन्न हो गया और रचना को बोलने का अभ्यास करने लगा

  रात को सेठ जब गुरु के साथ चलने लगा तो उसका मन प्रसन्नता के मारे बिल्लियो ऊंचा उछल चल रहा था

  इतनी जल्दी किसी कवि- सम्मेलन में कविता सुनाने का अवसर मिल सकता है, इस बात की उसने सपने में भी आशा ना थी वह पूरे रास्ते अपनी कविता को ही रटता रहा

 बड़े उल्लास पूर्ण वातावरण में कवि- सम्मेलन शुरू हुआ सेठजी ने जी भर कर आनंद लिया जब सब कवि अपनी रंचना  सुना चुके तो संयोजक से प्रार्थना करके गुरुजी ने सेठ का नाम बुलवा दिया

  बस, फिर क्या था सेठ माइक के सामने जा पहुंचा माइक को बाएं हाथ से थामकर जैसे ही उसने भीड़-भाड़ को देखा, उसके होश गुम हो गए कविता के स्थान पर आंखें बंद करके वह ऊंचे स्वर से बंदर... बंदर.... ही करता रहा

 उसके बेसुरे आलाप को सुनकर सब श्रोता एवं कवि हंसते हुए चले गये हां, उसके गुरुवर मुस्कुराते हुए मंच के पीछे अवश्य बैठे रहे

  लगभग आधा घंटा बाद जब सेठ ने आंखें खोली, तो केवल एक व्यक्ति एक व्यक्ति बोल उठा-' मैंने अपड़ो सामियाने उतरवानी छै। थे अपनी वाणी कु लगाम लगाओ, कवि जी !'

  कवि महोदय तो वाहवाही की आशा में रेक रहे थे जब उन्होंने अपने सामने बैठे एकमात्र पगड़ीधारी मारवाड़ी की यह बात सुनी तो अपने पीछे गुरुजी से वह बोला' गुरुजी यह क्या हुआ? मुझे हार और पुरस्कार….'

फूलों का हार तो कुंहला जाता वत्स, यह करारी हार आपको आजन्म याद रहेगी कवि ही नहीं, आप तो अनोखे कवि रहेघर जाओ और अपना डिटेल घी -तेल बेचो !' गुरुजी ने मुस्कुराते हुए कहा

 सेठजी तो चिकने घी- तेल का व्यापार करते-करते स्वयं भी चिकने घड़े बन चुके थे वह पुनः अपने पुराने धंधे से लग गये

Hindi story-भाग्य का खेल (शंका,संदेह)

  भाग्य का खेल       बहुत वर्षों पहले इसकी सिसली में राजा लिओन्टेस राज्य करता था। इटली के पास सिसली एक बड़ा टापू है। राजा लिओन्टेस के राज्य ...