चिकना घड़ा
एक सेठ था।उसका घी-तेल का व्यापार था। शुद्ध माल बेचता था, इसलिए उसकी दुकान पर खूब बिक्री होती थी। अच्छी बिक्री के कारण उसके पास कुछ धन जमा हो गया था।
उसके घर में केवल दो ही प्राणी थे- वह और उसकी पत्नी। उसके कोई संतान नहीं थी। जब बुढ़ापा समीप आने लगा तो वह व्यापार के साथ-साथ तीर्थ भ्रमण, पूजा-पाठ व सामाजिक कार्यों में भी रुचि लेने लगा।
एक बार उस सेठ के नगर में कवि- सम्मेलन का आयोजन हुआ तो सम्मेलन में भाग लेने के लिए दूर-दूर से कई प्रसिद्ध कवियों का आगमन हुआ।
सेठ ने अपने जीवन में कोई कवि- सम्मेलन ना देखा था। अतः रात को वह अपने दुकान को बंद करके वह भी कवि सम्मेलन देखने चला गया।
सबसे प्रथम एक कवि ने सरस्वती वंदना का मनोहर चंद सुनाया और फिर भक्ति- रस की कुछ अन्य कविताएं सुनआई। सभी वाह-वाह कर उठे। सेठ के मन में भगवान की भक्ति की तरंगें उठने लगी।
दूसरे नंबर पर एक कवि ने देशभक्त के जोशीले गीत सुनाए। उनकी सभी रचनाओं को भी सब श्रोताओं ने खूब सराहआ।
फिर,तीसरे नंबर पर जब एक हास्य- कवि की बारी आई तो, बस जैसे सम्मेलन में हंसी का तूफान उठ खड़ा हुआ। कविवर हाथ फेंक कर और तरह-तरह की मुद्राएं बदल-बदल कर कविता- पाठ कर रहे थे और सुनने वाले हंसी के मारे लोटपोट हुए जा रहे थे। हंसी के मारे सेठ के पेट में भी बल पड़ गया। लोग वाह-वाह कर उठे।
जब हंसी का दौर कुछ थमा तो बारी आई- वीर- रस के कवि महोदय की। कवि का उपनाम "बंम्ब " था।
उपनाम के अनुरूप ही, मानव" बम" फट पड़ा था। कविता क्या थी, सिंह- गर्जना थी! कुछ क्षणों के पूर्व वाला हंसी का सारा हल्का-फुल्का वातावरण कविता की दो पंक्तियां सुनते ही ओजस्वी हो उठा। अन्य बलवान श्रोताओं की बात तो अलग थी, मरियल- से सेट की भी बोटी-बोटी फड़कने लगी और मुख पर तेज झलकने लगा।
सेठ ने अपने समीप बैठे एक व्यक्ति से पूछा-' भैया यह कवि लोग कहां पाए जाते हैं?'
सेठ की बात सुनकर वह व्यक्ति हंसकर बोला-' सेठ जी' कवि संसार के सभी देशों, नगरो, गांव, मोहल्ला, जाति, धर्म- संप्रदाय में पाया जाने वाला जंतु है। शब्दों का जोड़- तोड़ भिड़ा कर कुछ अंट-सन्ट सेट गढ़ लो- बन गए कवि! चाहो तो तुम भी कवि बन सकते हो?'
सेठ मन- ही- मन अपने जीवन से कवियों के जीवन की तुलना करने लगा- वह भी तो अपने दुकान में दिनभर शुद्ध घी और तेल बेचता है, कभी किसी तेल या घी खरीदने वाले खरीददार ने उसके काम की सराहना नहीं की। उसे समाज की ओर से भी कभी वाहवाही नहीं मिली। सचमुच उससे तो कविओ का जीवन ही अच्छा है। बस, एक-दो चंद बनाकर सुना दो और खूब यश व धन लूटो।
फिर अपनी ढलती जवानी का ध्यान आया तो सोचने लगा- अब तो थोड़ा सा जीवन और बचा है, वह भी घी- तेल बेच कर ही कट जाएगा। कवियों का श्रेष्ठ जीवन उन्हें ही मुबारक!
किंतु यह विचार भी स्थाई ना रह सका। उसे किसी नीतिकार का वचन याद आया- किसी शुभ काम की प्रेरणा मिलने पर प्रमाद न करते हुए उस काम को कर ही डालना चाहिए।
इसी उहापोह में वह उठकर चल दिया। पूरे मार्ग में वह यही बात सोचता रहा कि वह क्रांतिकारी विचार के अनुसार अपने जीवन को बदलने का प्रयत्न करें या नहीं?
अपने घर पहुंचते-पहुंचते सेठ के क्रांतिकारी विचार की विजय हो गई। उसने अपने मन में दृढ़ संकल्प कर लिया कि वह अब कभी बने बिना चैन से ना बैठेगा।
रात को उसे सपने में भी कवि- सम्मेलन के दृश्य ही दिखाई देते रहे। एक सपना तो उसने यह भी देखा है कि वह कविता- पाठ कर रहा है। लोग 'वाह-वाह!' और 'धन्य- धन्य' कह रहे हैं और, कविता- पाठ करके जब वह अपने घर लौटा है तो गुलाब के फूलों का बड़ा सा हार उसके गले में झूल रहा है। पारिश्रमिक या पुरस्कार के रूप में प्राप्त पांच-सौ-एक रुपये उसकी जेब में पड़े हैं, सो अलग।
उस समय प्रसन्नता में डूबा वह गले के हार को उतारने लगता है तो एकाएक उसके नींद टूट जाती है- जो गमछा गले में अटक गया था, उसी हार को, वह अपने गले से हटाता है।
दूसरा दिन
दूसरे दिन वह सेठ जल्दी-जल्दी दैनिक कार्यों से निपट कर कवि सम्मेलन के आयोजक के पास जा पहुंचा और बोला-' मुझे किसी अच्छे से कवि का पता बता दीजिए।
'आप भी कोई कवि- सम्मेलन करना चाहते हैं क्या? आयोजक ने पूछा।
' नहीं, मैं तो स्वयं कवि बनना चाहता हूं।' सेठ ने कहा।
सेठ का यह उत्तर सुनकर वह व्यक्ति मन- ही- मन हंसा किंतु उसने सेठ को छकाने के लिए एक धूर्त और अहंकारी तथाकथित कवि का पता बता दिया।
सेठ पर तो कवि बनने का भूत पूरी तरह सवार था ही, वह तुरंत ही कविराज के दर्शनों को चल पड़ा।
सेठ ने कभी के पास पहुंच कर उसके चरण स्पर्श किए और उसके बाद अपने आने का उद्देश्य बताया
सेठ का उद्देश्य जानकर कवि महोदय मुस्कुरा कर बोले-' विचार तो आपका उत्तम है किंतु..........'
'किंतु क्या?' सेठ ने व्यग्रता के साथ पूछा।
' कवि बन पाना इतना आसान नहीं है, जितना आप समझ रहे हो। इस विद्दा को सीखने के लिए बड़े-बड़े पापड़ बेलने पड़ते हैं। तब कहीं जाकर……'
कवी अपनी बात पूरी भी नहीं कर पाया था कि सेठ बोल पड़ा-' आप चिंता ना करें गुरुवर! पापड़, पूरी, यहां तक कि आप की रोटी तक बेलने के लिए तैयार हूं। आप किसी तरह मुझे कवि बना दीजिए। मेरे जीवन की अंतिम साधना पूरी हो जाएगी।
'हूँ........,ऐसा ज्ञात होता है कि आप दृढ़ निश्चय करके घर से चले हैं? कवि ने पूछा।
'आपका विचार सोलह- आने सच है।'
'हूँ.....'लंबा हुंकार मारने के बाद कवि महोदय ने अपने मन में सोचा- हास्य में चल सकता है। फिर सेठ से पूछा-' आपकी रूचि किस रस में है?'
सेठ ने समझा, शायद कवि उसके सत्कार के लिए किसी रस की बात पूछ रहे हैं। अतः वह सकुचाकर बोला-' ह... ह.... ह.... रस की क्या जरूरत है। वैसे संतरा, मोसम्मी या जो भी आप व्यवस्था कर सके, वही रस ठीक रहेगा।'
सेठ की यह बात सुनकर कवि ने उसे मन- ही- मन उसे भद्दी- सी गाली दी, किंतु प्रकट में हिना- हिनाकर बोला- ह....ह... ह..... मेरा मतलब साहित्य रस से है। आप किस रस में साहित्य सर्जन करना चाहते हैं?'
सेठ को साहित्यिक- रसों की जानकारी भला कहां थी। वह मुंह- बाये कवि को देखता रहा, तो कवि समझ गया कि सेठ निरा काठ का उल्लू है। वह बोला-' काव्य के नौ रस होते हैं। हर कवि को अपनी आकृति और स्वभाव के अनुरूप उनमें से एक रस चुनना होता है। उसी रस की साधना करनी होती है तथा उसी रस के कवि के रूप में ही वह जाना जाता है।'
'मैं आपके सामने खड़ा हूं। आप जो भी रस मेरे लिए उचित समझे, बता दे। हां, आपसे यह बात मैं डंके की चोट पर कहता हूं कि रस में विष कदापि नहीं मिलाऊंगा। मेरी शुद्ध देसी घी की दुकान है, परंतु मैंने कभी मिलावट नहीं की। अब आप ही बताइए- फिर साहित्य के रस में ही मिलावट क्यों करूंगा?' सेठ बोला-
'आपके उत्तम विचार जानकर हम प्रसन्न हैं- भद्र! आपकी शुद्ध घी की दुकान है, तो अगली बार जब पधारे तो किलो दो- किलो…..'
'दो किलो क्यों, गुरुवर! पूरा कनस्तर लाऊंगा। गुरु- सेवा से बढ़कर और कौन- सा पवित्र कार्य हो सकता है? सेठ ने हाथ जोड़कर कवि की बात काटकर बीच में ही कहा।
कवि मन- ही- मन मुस्कुराया। फिर बोला-' ठीक है यह आपकी कोमल काया को देखते हुए मैं आपकी काव्य- साधना के लिए शृंगार-रस उचित समझता हूं।
'शृंगार और पुरुष के लिए!' सेठ चौका। बोला- गुरूजी श्रृंगार- रस तो महिला कवि…
'आप ठीक समझें। बुद्धि- कुशाग्र है, विद्दा को जल्दी ग्रहण करोगे।' कविवर नहीं प्रसन्नता व्यक्त की।
' आपकी कृपा से गुरुवर!' श्रद्धा से मस्तक नवाया ने।
'हां तो, अब मैं आपसे कुछ प्रश्न पूछूंगा और कवि बनने के लिए जो स्थूल- साधना आवश्यक है, वह बताऊंगा' कवि बोला।
'गुरुवर! साधना की बाद तो समझ में आती है, किंतु यह स्थूल क्या बला है?
'स्थूल- साधना से अभिप्राय कवि बनने की ऊपरी तैयारी से है, जब आप ऊपरी तैयारी कर चुकोगे तो सूक्ष्म- साधना के अधिकारी अपने आप बन जाओगे।' कवि ने बताया।
सेठ के पल्ले कवि की बात बिल्कुल ना पड़ी। किंतु उसकी नाराजगी के डर से उसने पूछा भी कुछ नहीं। हां, हाथ जोड़ते हुए यो बोला-' आप जो भी प्रश्न पूछना चाहे- पूछ ले, मैं तैयार हूं।
आसन पर जमकर बैठते हुए बोला-' आपका प्रिय व्यसन कौन सा है?'
'मैं व्यसनों से कोसों दूर हूं।' सेठ ने उत्तर दिया।
'मेरा मतलब है- धूम्रपान में सिगरेट, बीड़ी या चिल्लम?'
'कोई भी नहीं। सेठ बोला।
'तो सिगरेट से प्रारंभ करके सिगार की तरफ बढ़ना होगा। और हां, पेय में मदिरा प्रिय है या भांग? यदि मदिरा-पान कर लेते हो तो कौन- सा ब्राण्ड? कवि ने पूछा।
'आप कैसी बातें कर रहे हैं, प्रभु! मैं तो इनमे से किसी भी वस्तु को छूना भी पाप समझता हूं।' सेठ ने कहा।
'ह.....ह......ह......तो आपको कवि नहीं, भक्त बनने का प्रयास करना चाहिए अरे पगले! कवि और वह भी श्रृंगार- रस का! यदि आपके मस्तिष्क में ही मादकता ना रहेगी तो फिर कविता में क्या खाक मादकता का संचार कर पाओगे। खैर! हताश होने की जरूरत नहीं, आप केवल उक्त वस्तुओं का प्रबंध करके ले आवे। अभ्यास कराना मेरा काम है। हां, एक प्रश्न और।'
'पूछिये गुरुवर!'
'आपका इष्ट-देव कौन है?'
'भगवान श्री कृष्ण।'
हां, तुम्हारा ईष्ट देव श्रेष्ठ है, चलेगा। किंतु इसके साथ ही आपको अपनी पत्नी को भी अपने इष्ट देवी समझना होगा।आप अब उसे सुमुखे, सुनयने, प्रेरणा आदि संबोधनों से संबोधित करेंगे- 'लल्लू की महतारी' या 'पप्पू की मम्मी' कह कर नहीं।'
'अजी महाराज! घर में कोई लल्लू या पप्पू ही होता तो कवि बनने की सनक ही मुझ पर क्यों सवार होती?'
'तो आप नि:संतान हैं?'
'हां भगवान! दीर्घ श्वांस खींचकर सेठ बोला।
'यह शुभ लक्षण है। भगवान ने आपको कवि बनने के लिए ही तो इस धरा-धाम पर भेजा है।'
'और कोई हिदायत? पूछा सेठ ने।
'हिदायत नहीं, सफलता के सूत्र कहो- मेरे इन उपदेशों को। भविष्य में यही उपदेश तुम्हें' महान कवि' की उपाधि से विभूषित करायँगे।
'आपकी कृपा के लिए आभारी हूं गुरुवर!'
'अरे हां! कुछ याद करता हुआ कवि बोला-' अभी दो बातें बताना तो मैं भूल ही गया।'
'तो अब बता दीजिए, गुरुजी।'
'हां आपको अपनी वेशभूषा में भी पूरी तरह परिवर्तन करना होगा।' सेठ चौका।
'धीरे-धीरे सब समझ समझ जाओगे वत्स। यह गुण विद्दा है, आसानी से समझ में कहां आ जाती है। मन- ही- मन यो बड़बडाकर कवि बोला-' इस लालशाही पोशाक को छोड़कर कुर्ता और पैजामा अपनाना होगा। केशो को बढ़ाना होगा और कंधे पर पद यात्रियों वाला थैला भी आवश्यक है।'
कुछ सोचता हुआ सेठ बोला-' गुरूजी, और सब परिवर्तन तो मैं कर लूंगा, किंतु....'
'गुरु- वचनों में किन्तु-परन्तु की गुंजाइश कहां, उनको तो आंखें मूंदकर पालन करना आवश्यक है।' कविवर ने कहा।
'यह बाल बढ़ाने का झंझट मुझसे ना पाला जाएगा, स्नान करने पर यह घंटों सूखने का नाम ही नहीं लेंगे। काव्य- रचना की बजाय मै बालों का ही गुलाम बन कर रह जाऊंगा।' सेठ बोल।
'अरे- मेरे बहुत प्यारे शिष्य! आप श्रृंगार रस के कवि बनने जा रहे हो, घसियारे नहीं। फिर आप से नहाने के लिए किस उल्लू ने कहा है। नहाओ भले ही साल में एक बार, किन्तु बालों को तेल-कंघी का पोषण मिलते रहना आवश्यक है।'
'तेल तो एकदम शुद्ध, पीली सरसों का मेरे यहां मौजूद है ही को उसकी कोई चिंता नहीं- चिंता है तो केवल बालों के सवारने की।'
'आप फिर चूक गए सेठ! भई एकदम शुद्ध की बजाय भले ही महा-अशुद्ध हो, किन्तु तेल सुगन्धित होना चाहिए। चमेली, मोगरा या आंवला कोई भी सुगंध ठीक रहेगी।'
'मैं धन्य हुआ गुरुजी!' यह कहकर सेठ ने विदाई ली।
तीसरा दिन
सेठ जी ने अपने घर पहुंच कर जब पत्नी को अपनी खुराफात सुनाई तो उसने अपना मस्तक पीटते हुए सेठजी को समझाया-' कवि सम्मेलनों में कवियों का काव्य- पाठ सुनने गए थे या कवि बनने? यदि कल को किसी सर्कस में खेल देखने चले गए तो तुम झूलों पर कलाबाजी भी खाने लगोगे? नहा-धोकर भगवान का नाम लो और अपने दुकान पर पहुंचो, बन लिए कवि........ हूँ ।
सेठजी के मन में तो यह आया कि अपनी पत्नी की बात के उत्तर में कह दे कि स्त्री की बुद्धि हमेशा उसकी छोटी में बंधी रहती है, किंतु प्रकट में बोले-' प्रिये! सुमुखे ! सुनयने !!! तुम्हारे बल पर ही तो मैं काव्य- जगत में प्रवेश करने वाला हूं..... और तुम हो कि...... '
सेठजी शायद आगे भी कुछ कहते, किंतु तभी सेठानी हाथ नचाते हुए बोली-' हाय राम, और लो ! कवी तो ना जाने कब बनोगे, ये ढोंग- भरे चोंचले अभी से शुरू कर दिए।'
'तुम कुछ भी कहो अब तो कवि बन कर ही यश और सम्मान कमाना है।'
सेठानी चतुर् थी। अपने पति के स्वभाव से वह अच्छी तरह परिचित थी- समझ गई कि ये तो चिकने घड़े हैं, जब तक इन्हें भरपूर टक्कर न लगेगी, इन्हें अक्ल न आएगी। समझाना- बुझाना बेकार है। बोली-' मैं तो आपकी अनुगामिनी हूं, प्राणनाथ! जिस काम में आपकी रूचि हो, वही करो।
सेठ को सपने में भी विश्वास ना था कि उसकी पत्नी इतनी आसानी से स्वीकृति दे देगी। वह प्रसन्न हो उठा।
दूसरे दिन ही अपने सेवक के हाथों उसने शुद्ध घी का एक कनस्तर और कुछ नगद रुपए अपने गुरु के यहां भेज दिए और स्वयं अपने गुरु के उपदेश का पालन करने में जुट गया।
गुरुजी की अन्य आज्ञाओ का पालन करने में तो कोई विशेष कठिनाई नहीं हुई, किंतु काफी प्रयत्न करने पर भी वह मदिरा-पान ना कर सका। हां, मदिरा के स्थान पर उसने दिन भर चाय सुड़कना शुरू कर दिया।
उसकी पत्नी उसके लक्षणों को देख- देख कर परेशान थी, किंतु बेचारी मूकदर्शक बनी हुई थी। कहां तो पहले सेठ जी प्रातः तड़के बिस्तर छोड़ कर स्नान- ध्यान आदि दैनिक कार्यों में लग जाते थे और कहां अब 8:00 बजे तक भी बिस्तर पर में पड़े-पड़े करवट बदलते हुए उसे गुहार लगाते-' भद्रे, एक कप गर्म- गर्म चाय दे दो,ताकि तुम्हारा होनहार कवि- पति, उसे हथियार बनाकर, तन्द्रा से संग्राम कर सके।'
'हे राम ! इनकी बुद्धि को क्या हो गया है? अनियमित और सड़ीयल जीवन जीने से आखिर कवि का क्या संबंध है?' वह मन ही मन बुदबुदाती और प्रत्यक्ष में उसे चाय बनाकर देनी ही पड़ती।
दो महीने की साधना के बाद सेठ के लिए में बदलाव आने लगा। दुकान पर ग्राहक भी उससे उपहास करने लगे। उससे सेठ यह तो समझ गया कि वह उन्नति की ओर बढ़ रहा है, किंतु फिर भी गुरु से पूछना आवश्यक था। अतः एक दिन वह गुरु जी से मिलने चल दिया।
चौथा दिन
गुरुजी ने जैसे ही उसे देखा- वह खुशी से उछलते हुए बोले-' वाह..... वाह..... वाह......वाह मेरे प्यारे,वाह -वाह ! आपने तो कमाल ही कर दिया। परिवर्तन ! सचमुच परिवर्तन !! आश्चर्यजनक परिवर्तन !!!'
'आपके आशीर्वाद का ही फल है, गुरुजी सेठ ने श्रद्धा सहित गुरु के चरण स्पर्श किए।
'हां प्रिय आपके हुलिये को देखकर यह बात डंके की चोट पर कही जा सकती है कि आपका हुलिया फिफ्टी पर्सेन्ट कवि का हुलिया.... किन्तु व्यसनों....'
गुरु की बात को बीच में ही काट कर सेठ बोला-' प्रभु ! सिगरेट का अभ्यास तो धीरे-धीरे कर रहा हूं, किन्तु मदिरा का सेवन मुझसे ना हो सकेगा। हां, मदिरा के स्थान पर चाय खूब पीने लगा हूं।
'बहुत अच्छा ! बहुत अच्छा !! यह शुभ लक्षण है। रही बात मदिरा की, तो उसका लाभ गुरु अर्पित करने पर मिल सकता है। मैं तुम्हें फलदायक ब्रांड का नाम लिख दूंगा। मेरे लिए एक महीने का कोटा (लगभग 20 बोतल) एक साथ ही भेज देना।'
'जो आज्ञा गुरुवर ! अब आप मुझे कविता बनाने का ढंग बताने की कृपा करें।'
'आपके ऊपर हम शत- प्रतिशत यानी हण्ड्रेड परसेंट प्रसन्न है सेठजी, अवश्य कृपा करेंगे !' सेठ से यह कहकर कवि जी आंख मूंदकर कुछ सोचने लगे। दस-पंद्रह मिनट बाद आंख खोली और चारों ओर देखकर, पेड़ पर बैठे एक बंदर पर नजर गड़ा करा कर बोले-' वह पेड़ पर कौन बैठा है?'
शिष्य ने गौर से देख कर बताया-' बंदर है, गुरुजी !
'ठीक पहचाना ह.....ह......ह......अब बंदर पर कविता बनाता हूं, सुनो !'
'सुनाओ !'
'हम हैं घर के अंदर !
' हम पर है बंदर !!
गुरुजी ने छंद बनाया। शिष्य ने सुना तो वह खुशी से झूम उठा- वाह ! गुरुवर ! आपको तो सचमुच् सरस्वती सिद्ध है।'
'बस, इसे गुरु मंत्र मांन कर शाम को नित्य दो घंटे जपना शुरू कर दो। इससे आपकी बुद्धि कुशाग्र हो जायगी।
'शाम को तो दुकान पर बैठना होता है।' शिष्य ने अपनी परेशानी प्रकट की।
'भाई ! महान कवि बनने के लिए प्रयत्नशील व्यक्ति को दुकान का झंझट शोभा नहीं देता। आपको दुकान का काम छोड़ना होगा।
'यही काम करूंगा गुरुवर !' यो कह कर सेठ गुरुजी की बनाई हुई कविता को रटने लगा।
'आप इस कविता का अच्छी तरह अभ्यास कर लो, आज रात तो मैं आपने साथ आपको कवि- सम्मेलन में ले चलूंगा।गुरुजी ने अपने शिष्य से कहा-' हां, एक बात याद रखना कि कविता- पाठ करते समय आपकी आंखें बिल्कुल मुदि होनी चाहिए।'
'ऐसा क्यों गुरु जी? शिष्य ने पूछा।
'प्रारंभ में आंख मूंदकर ही काव्य- पाठ करना अच्छा रहता है। इससे एकाग्रता बनी रहती है।' गुरु ने समझाया।
शिष्य प्रसन्न हो गया और रचना को बोलने का अभ्यास करने लगा।
रात को सेठ जब गुरु के साथ चलने लगा तो उसका मन प्रसन्नता के मारे बिल्लियो ऊंचा उछल चल रहा था।
इतनी जल्दी किसी कवि- सम्मेलन में कविता सुनाने का अवसर मिल सकता है, इस बात की उसने सपने में भी आशा ना थी। वह पूरे रास्ते अपनी कविता को ही रटता रहा।
बड़े उल्लास पूर्ण वातावरण में कवि- सम्मेलन शुरू हुआ। सेठजी ने जी भर कर आनंद लिया। जब सब कवि अपनी रंचना सुना चुके तो संयोजक से प्रार्थना करके गुरुजी ने सेठ का नाम बुलवा दिया।
बस, फिर क्या था। सेठ माइक के सामने जा पहुंचा। माइक को बाएं हाथ से थामकर जैसे ही उसने भीड़-भाड़ को देखा, उसके होश गुम हो गए। कविता के स्थान पर आंखें बंद करके वह ऊंचे स्वर से बंदर... बंदर.... ही करता रहा।
उसके बेसुरे आलाप को सुनकर सब श्रोता एवं कवि हंसते हुए चले गये। हां, उसके गुरुवर मुस्कुराते हुए मंच के पीछे अवश्य बैठे रहे।
लगभग आधा घंटा बाद जब सेठ ने आंखें खोली, तो केवल एक व्यक्ति एक व्यक्ति बोल उठा-' मैंने अपड़ो सामियाने उतरवानी छै। थे अपनी वाणी कु लगाम लगाओ, कवि जी !'
कवि महोदय तो वाहवाही की आशा में रेक रहे थे। जब उन्होंने अपने सामने बैठे एकमात्र पगड़ीधारी मारवाड़ी की यह बात सुनी तो अपने पीछे गुरुजी से वह बोला' गुरुजी यह क्या हुआ? मुझे हार और पुरस्कार….'
फूलों का हार तो कुंहला जाता वत्स, यह करारी हार आपको आजन्म याद रहेगी। कवि ही नहीं, आप तो अनोखे कवि रहे।घर जाओ और अपना डिटेल घी -तेल बेचो !' गुरुजी ने मुस्कुराते हुए कहा।
सेठजी तो चिकने घी- तेल का व्यापार करते-करते स्वयं भी चिकने घड़े बन चुके थे। वह पुनः अपने पुराने धंधे से लग गये।
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