संयमराय का अपूर्व त्याग
दिल्ली के प्रतापी राजा पृथ्वीराज और महोबे के राजा पिरमाल में बहुत दिनों से शत्रुता थी। परिमाल ने अवसर पाकर पृथ्वीराज की एक सैनिक टुकड़ी पर आक्रमण किया और उसके कुछ सैनिकों को उन्होंने बंदी बना लिया। यह समाचार जब दिल्ली पहुंचा, तब राजा पृथ्वीराज क्रोध में भर गए। उन्होंने सेना सजा सजायी और महोबे पर आक्रमण कर दिया।
मोहेबे के राजा परिमाल भी बड़े वीर थे। उनकी सेना में आल्हा और उदल- जैसे वीर सामंन्त थे। आल्हा- उदल की वीरता का लो अब तक वर्णन करते हैं। परिमाल ने आल्हा- उदल और अपने दूसरे सब सैनिकों के साथ पृथ्वीराज का सामना किया। बड़ा भयंकर युद्ध हुआ। लेकिन दिल्ली की विशाल सेना के आगे महोबे के वीर टिक नहीं सके। राजा पृथ्वीराज विजय हुए। महोबे कि सेना युद्ध में मारी गई। परिमाल भी मारे गये। लेकिन दिल्ली की सेना भी मारी गई और पृथ्वीराज भी घायल होकर युद्ध भूमि में गिर गए।
सच्ची बात यह है कि उस युद्ध में कौन विजय हुआ, यह कहना ही कठिन है। दोनों ओर के प्रायः सभी योद्धा पृथ्वी पर पड़े थे। अन्तर इतना ही था कि महोबे के राजा और उनके वीरों ने प्राण छोड़ दिए थे और पृथ्वीराज तथा उनके कुछ सरदार घायल होकर गिर थे। वे जीवित तो थे; किंतु इतने घायल हो गए थे कि हिल भी नहीं सकते थे।
जब दोनों ओर के वीर युद्ध में मरकर या घायल होकर गिर गए और युद्ध की हलचल दूर हो गई, वहां झुंड- के- झुंड गीध आकाश से उतर पड़े। वे मरे और घायल लोगों को नोच- नोच कर खाने लगे। उनकी आंखें और आंते निकालने लगे। बेचारे घायल लोग चीखने और चिल्लाने को छोड़कर और क्या कर सकते थे। वे उन गधों को भगा सके, इतनी शक्ति भी उनमें नहीं थी।
राजा पृथ्वीराज जी घायल होकर दूसरे घायलों के बीच में पडे थे। वे मूर्छित हो गए थे। गिद्धों का एक झुंड उनके पास भी आया और आस-पास के लोगों को नोच- नोच कर खाने लगा। पृथ्वीराज के वीर सामंत संयम राय भी युद्ध में पृथ्वीराज के साथ आए थे और युद्ध के समय पृथ्वीराज के साथ ही घायल होकर उनके पास ही गिरे थे।
संयम राय की मूर्छा दूर हो गई थी, किंतु वे भी इतने घायल थे कि उठ नहीं सकते थे। युद्ध में अपनी इच्छा से ही वे राजा पृथ्वीराज के अंगरक्षक बने थे। उन्होंने पड़े-पड़े देखा कि गिद्धों का झुंड राजा पृथ्वीराज की ओर बढ़ता जा रहा है। वे सोचने लगे- 'राजा पृथ्वीराज मेरे स्वामी हैं। उन्होंने सदा मेरा सम्मान किया है। मुझ पर वे सदा कृपा करते थे। उनकी रक्षा के लिए प्राण दे देना तो मेरा कर्तव्य ही था और युद्ध में तो मैं उनका अंगरक्षक बना था। मेरे देखते-देखते गीध उनके शरीर को नोच कर खा ले, तो मेरे जीवन को धिक्कार है।
संयम राय ने बहुत प्रयत्न किया, किंतु वह उठ नहीं सके। गीध पृथ्वीराज के पास पहुंच गए थे, अन्त में वीर संयम राय को एक उपाय सूझा गया। पास पड़ी एक तलवार किसी प्रकार खिसका कर उन्होंने उठा ली और उससे अपने शरीर का मांस काट-काटकर गिद्धों की और फेंकने लगे। गिद्धों को मांस की कटी बोटियां मिलने लगी तो वे उसको झपट्टा मारकर लेने लगे।मनुष्यों के देह नोचना उन्होंने बंद कर दिया।
राजा पृथ्वीराज की मूर्छा टूटी। उन्होंने अपने पास गिद्धों का झुंड देखा। उन्होंने यह भी देखा कि संयम राय उन गिद्धों को अपना मांस काट-काट कर खिला रहे हैं। इतने में पृथ्वीराज के कुछ सैनिक वहां आ गए। वे राजा और उनके दूसरे घायल सरदारों को उठाकर ले जाने लगे; किंतु स्वयं राय अपने शरीर का इतना मांस गिद्धों को काट-काट कर खिला चुके थे कि उनको बचाया भी नहीं जा सका। अपने कर्तव्य के पालन में अपने देह का मांस अपने हाथों काटकर गिद्धों को देने वाला वह वीर युद्धभूमि में सदा के लिए सो गया था।
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